Wednesday 8 June 2016

घुघूति....... बासूति.....

आज अनेक वर्ष पर्यन्त मैंने पुनः उसी पक्षी के मार्मिक व करुणा भरे स्वर सुने....... लेकिन एकदम दूसरे वातावरण में......... पश्चिमी भू़खण्ड़ में।
मेघाच्छादित गगन ..... उदास वातावरण जैसे मेरा मन और यकायक इस पक्षी के बोलने ने मन को उड़ाकर जन्मभूमि पहुंचा दिया!
अनेक वर्षों पूर्व जब जीवन में बहार थी और जब हम सपरिवार मालौंज, रानीखेत हमारे पिताजी के पूर्वजों के गांव गए थे तब यही बोली पहाड़ों में देवदार व चीड़ के वृक्षों तले सुनाई दी थी..... परन्तु तब मन पर कुछ और ही प्रभाव पड़ा था।
मुझे याद है कि हम बच्चों ने भी इसी बोली की बहुत जोश के साथ नकल उतारी थी । तब हमारे पिताजी ने इस पक्षी के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध कुमाउनी लोकप्रिय कविता सुनाई थी।

घघूति बासूती,
माम कां छू,
मालकोटी,
के ल्यालो,
दूधभाती,
को खालो .......

और एक और लोक कविता.......

घुघूति बासूती,
भाइ आलो,
मैं सूति,

कहां गए वे दिन........?

बस पक्षी समान उड़ गए.......

जीवन में धूप-छाँव हमेशा ही रहे हैं!
हमारे निजि परिस्थितियों में परिवर्तन आने के कारण जीवन के संगीत में सुर बेसुरे हो जाते हैं - उदासी, अन्धकार व दुःख प्रवेश कर जाते हैं।

काश हम इन बेसुरे स्वरों को सुमधुर स्वरों में परिवर्तित कर पाते........क्या अपनी जीवनधारा में पुनः आनन्दमय श्रुति प्रवाहित कर पाएंगे?

लेकिन ओ री घुघूति..... तू तो अपनी ड़ाल पर से चुपचाप उड़ चली उत्तर दिए ही बिना..........!